कबीर — मगहर

(सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – दस्तावेजी प्रेस छायाकार)


” क्या काशी . क्या ऊसर मगहर , जो पै राम बस मोर | जो कबीर काशी मरे , रामही कौन निहोर ‘
तीर्थ साधारत: तरण के स्थान को ही कहते है | सभी तीर्थ मुख्यत: जल – तीर्थ होते है | नदियों के उद्गम , संगम और तिरोहण स्थलों पर ही तीर्थ होते है | स्थिर जलाशयों , झीलों , कुण्ड , कुपो – जल स्रोतों , झरनों और दरियों को भी तीर्थ की महिमा दी जाती रही है | मगहर , तीर्थ के सम्पूर्ण अर्थ का बहिष्कार करता है | वह एक प्रतितीर्थ हैं जहां साधू शक्ति के द्वारा आवश्यकतानुसार जल का आवाहान किया गया , जहाँ जल नही था , पहाड़ नही थे , घाटियाँ और सुन्दर वनस्पतिया नही थी , ऊसर और वीरान था | जहां तीर्थ से जुडी कोई सम्भावना नही थी | जहाँ रहना मोक्ष विरोधी कृत्य था , वहाँ ”कबीर ” ने तीर्थ स्थापित किया | अब भी गंगा नदी के दो तटो में से एक को तीर्थतट की प्रतिष्ठा प्राप्त है और दूसरे को मगह या मगहर अर्थात अतीर्थ के रूप में लोक्श्रुति प्राप्त हुई है मगह या मगहर काशी का प्रतिस्थान है | कहा नही जा सकता कि ”मगह ‘ को प्रतिस्थान की श्रुति संत कबीर की वजह से प्राप्त हुई या पहले से ही ऐसी कोई परम्परा विद्यमान थी |
ऐसा लगता है कि कबीर ने अपने आर्ष वचनों से वेद और कितेब , कुरआन और पुराण , तीर्थ और पूजा , जप और माला के सभी मूल्यों को निरस्त कर दिया तो एक ऐसी संत विचारधारा की स्थापना हुई जिसमे ‘ मन चंगा तो कठौती में गंगा ‘ जैसी उक्तिया बनी अथवा ‘ जो कबीर कासी मरे , रामही कौन निहोर ” जैसी धार्मिक चुनौती और दृढ धार्मिक विशवास के साथ एक काव्य – पक्ति सामने आई | यह निश्चित है कि संत कबीर साधुता की स्थापना कर रहे थे | घर छोड़कर जंगल जाने वाली या भिक्षा करने वाली परोपजीवी साधुता का खंडन कर रहे थे | वे यह मानकर चल रहे थे कि कर्म की उपासना के निकट रहकर ही धर्म की साधना सम्भव है | श्रमिक की कमाई पर जीने वाले ब्राह्मण और भिक्षा के बल पर धर्माचार्य की प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले योगियों और साधुओ को उन्होंने अपने व्यंग्य से आहत किया | अपने इस नए विचार की स्थापना के लिए मुख्य रूप से वे धर्माधिकार से वंचित उपेक्षित , दलितों अन्त्यजो , लेकिन श्रम में आस्था रखने वाले सच्चे मानव और वास्तविक सन्तो के बीच घूम रहे थे | काशी उस समय धर्म और धर्म साधना का ही सबसे बड़ा केंद्र था बल्कि तंतु – व्यवसाय करने वाले वस्त्र कर्मियों , जुलाहों , कोरियो का भी एक बड़ा केंद्र था अवध से लेकर काशी तक वस्त्र व्यवसाय से सम्बन्धित तमाम श्रमिक और व्यवसायी काशी आते जाते रहते थे और अपना ही काम करने वाले एक संत – विरक्त के प्रति वे निश्चित रूप से अधिक निष्ठावान रहे होंगे | आज भी वस्त्र – श्रमिक का समूह हिन्दू – मुस्लिम सम्प्रदाय की पिछड़ी जातियों से ही सम्बद्ध है | |
कबीर धुनी और गोरखतलैया

अनुश्रुति है कि मगहर अभिशप्त था और वहाँ एक युग से अकाल पडा हुआ था , धरती सुख चुकी थी | कही पानी नही था | जनता की त्राहि – त्राहि से विह्वल होकर वहाँ के नवाब बिजली खान काशी आये | वे जानते थे कि संत कबीर हिन्दू – मुस्लिम दोनों वर्गो में , विशेष रूप से श्रमजीवियो में अत्यंत लोकप्रिय और श्रद्धास्पद है | बड़े – बड़े शेखो , सूफियो पंडितो और धर्माचार्यो की संत कबीर से जुडी पराभाव – गाथा भी सुन चुके थे | कबीर को मगहर के अकाल के बारे में बताया और आग्रह किया कि वो वहाँ चले कबीर ने लोगो की पुकार पर मगहर जाना निश्चित किया उनके एक शिष्य मिथिला निवासी व्यास ने यह भी कहा कि मगहर में मरने से मोक्ष की प्राप्त नही होगी | अत: अंतिम समय काशी छोड़कर अतीर्थ नरक के द्वार मगहर जाना ठीक नही | तब कबीर ने अपनी दृढ भक्ति और गहन आत्मनिष्ठा के स्वर में उस व्यास को बताया – ” क्या काशी . क्या ऊसर मगहर , जो पै राम बस मोर | जो कबीर काशी मरे , रामही कौन निहोर ‘ और कबीर मगहर चले गये | अकाल से झुलसी हुई भूमि को उन्होंने देखा | वहाँ की अनुवर्र मिटटी को उन्होंने पहचाना और उन्हें लगा कि तीर्थो के प्रति पागल अंध – श्रद्धा से अभिभूत आदमी को बताने के लिए ‘प्रतितीर्थ ‘ कोई नही हो सकता और तीर्थो में आस्थाशीलो को जल पुकारता है ,उन्होंने यह तय किया कि वे जल को ही पुकारेंगे | जल को पुकारने के लिए उन्होंने मगहर के एक नितांत ऊसर स्थान को अपनी साधना के लिए चुना और वही जलती हुई धुप के बीच आग लगाकर अपनी ‘धुनी रमाई ” आग सुलगती रही और कबीर जलन के इस व्यूह के भीतर तपते रहे | लोगो का आना जाना शुरू हुआ संत फकीर आम आदमी भी आते जाते रहे अनजाने में एक भंडारा हो गया लोगो ने कबीर से कहा ”यहाँ तो आग ही आग है , धरती जल रही है आसमान जल रहा है , आप जल रहे है , लेकिन पानी कही नही है , संत कबीर ने गुरु गोरखनाथ के उत्तराधिकारी गोरखगद्दी के नाथ साधू गोरख की ओर संकेत किया | कहा कि यह इन्ही हठयोगी की साधना भूमि है | इन्ही से अपना दुःख कहो गोरखपंथी भक्त गोरखनाथ ने उस चुनौती को स्वीकार किया और अपने दाहिने पाँव से पृथ्वी के एक अंश को तब तक दबाते रहे जब तक जलस्रोत नही फूट गया | यह स्थान गोरखतलैया के नाम से विख्यात है | इस तलब के किनारे सन्त कबीर की धुधूनी है | योग और सन्त – साधना का यहाँ अद्भुत समन्वय हुआ | योगी ने जल का आव्हान किया और सन्त ने अग्नि का | धूनी और गोरख तलैया दोनों परस्परस्पर्धी चमत्कार के प्रतीक है | यह स्थान योगसाधना का मिलन – बिंदु है | सरकार ने इस स्थान पर सड़क बनाकर एक ऐतिहासिक दस्तावेज का नष्ट कर दिया है पर अभी भी कबीर धूनी बची है |
सुनील दत्ता – स्वतंत्र पत्रकार – दस्तावेजी प्रेस छायाकार


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